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गीता प्रेस, गोरखपुर >> आशा की नयी किरणें

आशा की नयी किरणें

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :214
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1019
आईएसबीएन :81-293-0208-x

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प्रस्तुत है आशा की नयी किरणें...

जीवन-पराग


काना-फूँसीसे विक्षुब्ध न हों

दो व्यक्ति एक ओर जाकर चुपचाप कुछ काना-फूँसी करने लगते हैं। अभी-अभी वे आपके समीप थे, अब कुछ दूर हट गये हैं कि आप उनकी बातें न सुन सकें।

आपके हृदयमें शंका उत्पन्न होती है। आप सोचते है, 'अवश्य ये लोग मेरे विषयमें टीका-टिप्पणी कर रहे हैं। मेरे चरित्रमें जो दुर्बलताएँ हैं, उनपर आलोचना हो रही है। तभी तो दूर हट गये है।' ऐसा सोचकर आप अपनी ही दृष्टिमें कुछ नीचे गिर जाते हैं। कानाफूँसी करनेवाले व्यक्तियोंकी ओर शंकासे देखते रहते हैं।

आपकी यह प्रवृत्ति-दूसरोंको अपने प्रति ईर्षालु समझना, अपने आलोचक और विरोधी समझना-स्वयं आपकी आन्तरिक दुर्बलताके चिह्न हैं। कोई क्या कहता है? आपके प्रयत्नोंको कोई प्रशंसात्मक दृष्टिसे देखता है अथवा निन्दात्मक दृष्टिसे? यह जाननेकी प्रवृत्ति साधककी किसी छिपी हुई आन्तरिक दुर्बलताको द्योतित करती है और उसकी सृष्टि भी करती है। आप यह मानिये कि सब आपके मित्र है; कोई आपके प्रति ईर्षालु नहीं; कोई आपकी चुगली नहीं करता। मित्रभाव रखनेसे मनमें शान्ति बनी रहती है और सामाजिक सम्बन्ध मधुर बनते हैं।

वर्तमानका सदुपयोग करें

जो कार्य, कर्तव्य या उत्तरदायित्व हमारे सामने है उसपर ध्यान न देकर हम सदा बीती घटनाओंकी चिन्ता करते रहते हैं-'यदि मैं ऐसा न करता, तो यह कष्ट न आता; यदि उसने मुझे यह सहायता दी होती, तो यह ऐसा हो जाता, अथवा कहीं ऐसा न हो जाय?' आदि मिथ्या भयोंसे सदा व्याकुल और त्रस्त रहते हैं। अर्थात् भूत और भविष्यमें ही निवास करते हैं, जब कि हमारा निवास केवल वर्तमानमें ही सम्भव है और उसीको उपयोगी बनाकर हम सफल बन सकते हैं। जो बीत चुका वह तो मर गया; उसकी चिन्ता क्यों करें? जो भविष्यमें आनेवाला है, वह वर्तमानके सदुपयोगसे उज्ज्वल बनेगा।

चुनकर पुस्तक पढ़ें

अनुभवसे ज्ञान परिपक्व बनता है, लेकिन अध्ययनसे ज्ञान पूर्ण होता है। पुस्तक पढ़नेका तात्पर्य यह है कि आप किसी समुन्नत प्रकाशित आत्माका सत्संग कर रहे हैं। सत्संगका प्रभाव चुम्बक-जैसा है। इससे बड़ा अच्छा वातावरण उत्पन्न होता है। इस वातावरणमें रहकर आप आध्यात्मिक पथपर सरलतासे अग्रसर हो सकेंगे। अतः आप पुस्तकें चुनकर पढ़ें। जीवन इतना बड़ा नहीं कि संसारकी समग्र पुस्तकोंका अध्ययन-मनन हो सके; आपके पास इतना धन भी नहीं कि सभी खरीद सकें। अतः नित्यप्रतिके सांसारिक कार्योंसे जो समय बचे वह चुनी हुई पुस्तकोंमें लगाया करें। फालतू पुस्तकें पढ़नेसे मनकी गम्भीरता जाती रहती है।

अप्रिय कार्य पहले कर लें

कुछ कार्य ऐसे हैं जो आपके लिये आर्थिक, सांसारिक, राजनीतिक या अन्य किसी कारणसे आवश्यक हैं, किंतु उन्हें करनेमें आपको मजा नहीं आता। मन बार-बार उनसे ऊबकर मनोरजंक कार्योंकी ओर अग्रसर होता है। यह सही है कि उन कार्योंमें आपका मन नहीं लगता, पर उनके बिना काम भी नहीं चल सकता।

करने अति आवश्यक हैं। उनपर विजय प्राप्त करनेका सरल उपाय यह है कि आप अप्रिय कार्योंको पहले करें। शुरू-शुरूमें आप ताजे रहते हैं। कार्य-शक्ति भरी रहती है। मन काममें लगना चाहता है, शरीर कुछ काम माँगता है। अतः इन सख्त कार्योंपर नियन्त्रित होकर लग जायँ। मनको मजबूतीसे कार्यपर एकाग्र रखें। दृढ़ इच्छा-शक्तिके प्रतापसे यह शुष्क कार्य जल्दी होगा और अच्छा होगा। सरल कार्य तो तब भी हो जाता है, जब आप थके होते हैं।

साहसपूर्ण जीवन व्यतीत करें

यदि आप साहस करके किसी कार्यक्षेत्रमें प्रविष्ट हो जायँ, तो दूसरोंपर आपकी धाक बैठती है और आपकी गुप्त शक्तियों जाग्रत् होकर अपनी सम्पूर्ण शक्तिसे कार्य करती हैं। इसके विपरीत यदि आप भयभीत होकर दब जायँ, तो इसका दूसरा अर्थ यह है कि दूसरोंके व्यक्तित्वका प्रभाव आपपर पड़ गया है। साहस एक प्रकारका चुम्बक है, जो दूसरोंपर अपना अद्भुत प्रभाव डालता है।

साहस पुस्तक या उपदेशमात्रसे विकसित नहीं होता; प्रत्युत नित्य-प्रतिके अभ्यासपर और कार्यमें लेनेपर अवलम्बित है। आपका साहस एक ऐसी सम्पदा है, जिसे आप पग-पगपर भुनाते हैं। अतः विवेकपूर्ण होकर अपनी इस उच्च शक्तिका विकास करते चलें! हिम्मतसे काम लें।

बातको कलपर न टालें

प्रत्येक कार्यको करनेका साहस और उत्साहपूर्ण क्षण होता है। यह क्षण जोश और रुचिसे भरा रहता है। यदि कोई कार्य इस क्षण (Intense moment) पर कर लिया जाय तो कठिन कार्य भी सहजमें ही सम्पन्न हो जाता है। कार्य-भार प्रतीत नहीं होता। जब यह जोश ठंडा पड़ जाता है, तो कार्यशक्तियाँ शिथिल पड़ जाती है। मनका सहयोग प्राप्त नहीं होता; एक प्रकारका आलस्य आकर कार्यशक्तियोंको पंगु कर देता है।

कलपर बात टालनेवालेका सर्वनाश होता है। इस उक्तिका प्रत्यक्ष उदाहरण रावण है जो महाबली और सामर्थ्यवान् होकर भी अमृत-घट पीनेकी बात टालता रहा! अन्तमें उस आलस्य और टालवृत्तिके कारण मृत्युको प्राप्त हुआ। बातको टालना मानसिक शैथिल्य और मनकी चञ्चल वृत्तिका परिचायक है। जो कुछ करना है पर्याप्त सोच-समझके उपरान्त, तुरंत पूरा और पक्का कर लेना चाहिये।

खूले दिलसे अपनी भूल स्वीकार करें

यदि आप भूलको स्वीकार न करें तो आपकी आत्मापर एक प्रकारका आन्तरिक भार रहता है। आत्मा तो सत्यकी प्रखर ज्योतिकी तरह है। उसके सामने कालिमा कैसे टिक सकती है? भूलसे उत्पन्न आन्तरिक दुःख एक प्रकारकी कालिमा है। अतः यदि आप भूलको स्वीकार कर मुक्त हृदयसे माफी माँग लेते हैं, तो मनके गुप्त प्रदेश से कालिमा चेतनाके ऊपरी स्तरपर आ जाती है। चेतनाके सम्मुख आते ही मानसिक क्लेश दूर हो जाता है! माफ न करनेपर मन ईर्ष्या और प्रतिशोधकी कलुषित भावनाओंसे उद्विग्न रहता है। अतः भूलको स्वीकार करना आध्यात्मिक पथपर आगे बढ़ना है। भविष्यमें भूल न करनेकी सावधानी रख दृढ़तासे कर्त्तव्य-पथपर आरूढ़ रहें। पुरानी गलतियोंसे जीवनका पाठ सीखें। सावधान, उनकी पुनरावृत्ति न होने पाये।

सहन करना सीखें

संसार, देश, प्रान्त और परिवारके झगड़ोंका मूल व्यंग्य है। हम दूसरोंकी बात, चाहे वह न्यायपूर्ण ही क्यों न हो, सहन नहीं करना चाहते। जरा-जरा-सी बात हमारे हृदय-कमलमें कांटेकी तरह घुस जाती है। कड़वी बात, अपनी आलोचना, बुराइयाँ या हमारी बातका कट जाना हमारी पीड़ाका कारण बन जाता है। उत्तेजित होकर हम झगड़ा कर बैठते हैं। फलतः हम अपने अच्छे सम्बन्धोंको अनायास ही तोड़ बैठते हैं। क्रोध शान्त होनेपर हमें अपनी मूर्खताका ज्ञान होता है। यदि हम दूसरोंकी बात सहन करना सीखें, अपने- आपको संयमित कर लिया करें, तो अनेक स्थानोंपर विजयी हो सकते हैं। मित्रता, पारिवारिक सम्बन्ध, ग्राहक, श्रोता इत्यादि हमारे मित्र बने रह सकते हैं।


अतिसे बचें

एक उपन्यासकार भारतीय मनोवृत्तिके विषयमें लिखते हैं, 'इस देशमें जो कुछ देखता हूँ सब अतिके दर्जेपर है। थोड़ेसे बहुत धनवान् और बहुतसे निर्धन;बिरला ही अत्यन्त धर्मनिष्ठ और बहुतसे कीड़े-मकोड़ोंसे ज्यादा सड़ी जिन्दगी बितानेवाले!'

वास्तवमें अतिका मार्ग अनेक उत्पातोंकी जड़ है। जहाँ अति है, वहाँ कभी-न-कभी क्रान्ति आ सकती है; भयंकर छीना-झपटी हो सकती है। अतिको पहुँचे हुए धार्मिक वृत्तिके व्यक्ति और अतिको पहुँचे हुए नास्तिक अवश्य किसी दिन लड़ पड़ेंगे।

दैनिक जीवनमें जहाँ आप अति करेंगे, वहीं झगड़े, ईर्ष्या, द्वेषकी अग्नि प्रज्वलित हो जायगी। दूसरे समझेंगे कि आप उनके हिस्सेका भी अपहरण कर रहे हैं; सब कुछ अपने-आप ही ले लेना चाहते हैं।

अतिकी आदत एक प्रकारका पागलपन है, जो हमें निपट स्वार्थी बनाकर हमारी आत्मीयताका दायरा संकुचित कर देती है। अपने स्वार्थोंके सम्मुख हमें दूसरोंकी न्यायपूर्ण आवश्यकताएँ भी नहीं दीखतीं।

आप सब जगह मध्यका मार्ग ग्रहण करें। न इतना कडुवा बनें कि जो चखे, सो थूके; न इतना मीठा बनें कि जो देखे, सो चट कर जाय। सबसे मिलना बरतना पर इच्छानुसार स्वतन्त्र कार्य करना ही उन्नतिका सही मार्ग है।

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    अनुक्रम

  1. अपने-आपको हीन समझना एक भयंकर भूल
  2. दुर्बलता एक पाप है
  3. आप और आपका संसार
  4. अपने वास्तविक स्वरूपको समझिये
  5. तुम अकेले हो, पर शक्तिहीन नहीं!
  6. कथनी और करनी?
  7. शक्तिका हास क्यों होता है?
  8. उन्नतिमें बाधक कौन?
  9. अभावोंकी अद्भुत प्रतिक्रिया
  10. इसका क्या कारण है?
  11. अभावोंको चुनौती दीजिये
  12. आपके अभाव और अधूरापन
  13. आपकी संचित शक्तियां
  14. शक्तियोंका दुरुपयोग मत कीजिये
  15. महानताके बीज
  16. पुरुषार्थ कीजिये !
  17. आलस्य न करना ही अमृत पद है
  18. विषम परिस्थितियोंमें भी आगे बढ़िये
  19. प्रतिकूलतासे घबराइये नहीं !
  20. दूसरों का सहारा एक मृगतृष्णा
  21. क्या आत्मबलकी वृद्धि सम्मव है?
  22. मनकी दुर्बलता-कारण और निवारण
  23. गुप्त शक्तियोंको विकसित करनेके साधन
  24. हमें क्या इष्ट है ?
  25. बुद्धिका यथार्थ स्वरूप
  26. चित्तकी शाखा-प्रशाखाएँ
  27. पतञ्जलिके अनुसार चित्तवृत्तियाँ
  28. स्वाध्यायमें सहायक हमारी ग्राहक-शक्ति
  29. आपकी अद्भुत स्मरणशक्ति
  30. लक्ष्मीजी आती हैं
  31. लक्ष्मीजी कहां रहती हैं
  32. इन्द्रकृतं श्रीमहालक्ष्मष्टकं स्तोत्रम्
  33. लक्ष्मीजी कहां नहीं रहतीं
  34. लक्ष्मी के दुरुपयोग में दोष
  35. समृद्धि के पथपर
  36. आर्थिक सफलता के मानसिक संकेत
  37. 'किंतु' और 'परंतु'
  38. हिचकिचाहट
  39. निर्णय-शक्तिकी वृद्धिके उपाय
  40. आपके वशकी बात
  41. जीवन-पराग
  42. मध्य मार्ग ही श्रेष्ठतम
  43. सौन्दर्यकी शक्ति प्राप्त करें
  44. जीवनमें सौन्दर्यको प्रविष्ट कीजिये
  45. सफाई, सुव्यवस्था और सौन्दर्य
  46. आत्मग्लानि और उसे दूर करनेके उपाय
  47. जीवनकी कला
  48. जीवनमें रस लें
  49. बन्धनोंसे मुक्त समझें
  50. आवश्यक-अनावश्यकका भेद करना सीखें
  51. समृद्धि अथवा निर्धनताका मूल केन्द्र-हमारी आदतें!
  52. स्वभाव कैसे बदले?
  53. शक्तियोंको खोलनेका मार्ग
  54. बहम, शंका, संदेह
  55. संशय करनेवालेको सुख प्राप्त नहीं हो सकता
  56. मानव-जीवन कर्मक्षेत्र ही है
  57. सक्रिय जीवन व्यतीत कीजिये
  58. अक्षय यौवनका आनन्द लीजिये
  59. चलते रहो !
  60. व्यस्त रहा कीजिये
  61. छोटी-छोटी बातोंके लिये चिन्तित न रहें
  62. कल्पित भय व्यर्थ हैं
  63. अनिवारणीयसे संतुष्ट रहनेका प्रयत्न कीजिये
  64. मानसिक संतुलन धारण कीजिये
  65. दुर्भावना तथा सद्धावना
  66. मानसिक द्वन्द्वोंसे मुक्त रहिये
  67. प्रतिस्पर्धाकी भावनासे हानि
  68. जीवन की भूलें
  69. अपने-आपका स्वामी बनकर रहिये !
  70. ईश्वरीय शक्तिकी जड़ आपके अंदर है
  71. शक्तियोंका निरन्तर उपयोग कीजिये
  72. ग्रहण-शक्ति बढ़ाते चलिये
  73. शक्ति, सामर्थ्य और सफलता
  74. अमूल्य वचन

विनामूल्य पूर्वावलोकन

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